सीआरपीसी की धारा 197 क्या है
दंड प्रक्रिया सहिता में “न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन“ इसका प्रावधान सीआरपीसी (CrPC) की धारा 197 में किया गया है | यहाँ हम आपको ये बताने का प्रयास करेंगे कि दंड प्रक्रिया सहिता (CrPC) की धारा 197 के लिए किस तरह अप्लाई होगी | दंड प्रक्रिया सहिता यानि कि CrPC की धारा 197 क्या है ? इसके सभी पहलुओं के बारे में विस्तार से यहाँ समझने का प्रयास करेंगे | आशा है हमारी टीम द्वारा किया गया प्रयास आपको पसंद आ रहा होगा |
(CrPC Section 197) Dand Prakriya Sanhita Dhara 197 (न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन)
इस पेज पर दंड प्रक्रिया सहिता की धारा 197 में न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन इसके बारे में क्या प्रावधान बताये गए हैं ? इनके बारे में पूर्ण रूप से इस धारा में चर्चा की गई है | साथ ही दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 197 कब नहीं लागू होगी ये भी बताया गया है ? इसको भी यहाँ जानेंगे, साथ ही इस पोर्टल www.nocriminals.org पर दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की अन्य महत्वपूर्ण धाराओं के बारे में विस्तार से बताया गया है आप उन आर्टिकल के माध्यम से अन्य धाराओं के बारे में भी विस्तार से जानकारी ले सकते हैं |
CrPC (दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ) की धारा 197 के अनुसार :-
न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन
(1) जब किसी व्यक्ति पर, जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या ऐसा लोक सेवक है या था जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान, जैसा [लोकपाल और लोकायुक्त]
(क) ऐसे व्यक्ति की दशा में. जो संघ के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित या केंद्रीय सरकार की;
(ख) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था, उस राज्य सरकार की, पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं:
[परंतु जहाँ अभिकथित अपराध खंड (ख) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति द्वारा उस अवधि के दौरान किया गया था जब राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा प्रवृत्त थी, वहां खंड (ख) इस प्रकार लागू होगा मानो उसमें आने वाले “राज्य सरकार” पद के स्थान पर केंद्रीय सरकार” पद रख दिया गया है।]
स्पष्टीकरण-शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि ऐसे किसी लोक सेवक की दशा में, जिसके बारे में यह अभिकथन किया गया है कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 166क, धारा 166ख, धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 370, धारा 375, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ग, धारा 3764 या धारा 509 के अधीन कोई अपराध किया है, कोई पूर्व मंजूरी अपेक्षित नहीं होगी।]
(2) कोई भी न्यायालय संघ के सशस्त्र बल के किसी सदस्य द्वारा किए गए किसी अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था, जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं।
(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकती है कि उसमें यथाविनिर्दिष्ट बल के ऐसे वर्ग या प्रवर्ग के सदस्यों को जिन्हें लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्यभार सौंपा गया है, जहां कहीं भी वे सेवा कर रहे हों, उपधारा (2) के उपबंध लागू होंगे और तब उस उपधारा के उपबंध इस प्रकार लागू होंगे मानों उसमें आने वाले केंद्रीय सरकार” पद के स्थान पर “राज्य सरकार” पद रख दिया गया है।
(क) उपधारा (3) में किसी बात के होते हुए भी कोई भी न्यायालय ऐसे बलों के किसी सदस्य द्वारा, जिसे राज्य में लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, किए गए किसी ऐसे अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह्, उस राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा के प्रवृत्त रहने के दौरान, अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं।
(ख) इस संहिता में या किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, यह घोषित किया जाता है कि 20 अगस्त, 1991 को प्रारंभ होने वाली और दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1991 (1991 का 43), पर राष्ट्रपति जिस तारीख को अनुमति देते हैं उस तारीख की ठीक पूर्ववर्ती तारीख को समाप्त होने वाली अवधि के दौरान ऐसे किसी अपराध के संबंध में जिसका उस अवधि के दौरान किया जाना अभिकथित है जब संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा राज्य में प्रवृत्त थी, राज्य सरकार द्वारा दी गई कोई मंजूरी या ऐसी मंजूरी पर किसी न्यायालय द्वारा किया गया कोई संज्ञान अविधिमान्य होगा और ऐसे विषय में केंद्रीय सरकार मंजूरी प्रदान करने के लिए सक्षम होगी तथा न्यायालय उसका संज्ञान करने के लिए सक्षम होगा।]
(4) यथास्थिति. केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का जिसके द्वारा और उस रीति का जिससे वह अपराध या वे अपराध, जिसके या जिनके लिए ऐसे न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किया जाना है, अवधारण कर सकती है और वह न्यायालय विनिर्दिष्ट कर सकती है जिसके समक्ष विचारण किया जाना है।
According to Section. 197 – “ Prosecution of Judges and public servants ”–
(1) When any person who is or was a Judge or Magistrate or a public servant not removable from his office save by or with the sanction of the Government is accused of any offence alleged to have been committed by him while acting or purporting to act in the discharge of his official duty, no Court shall take cognizance of such offence except with the previous sanction-
(a) in the case of a person who is employed or, as the case may be, was at the time of commission of the alleged offence employed, in connection with the affairs of the Union, of the Central Government;
(b) in the case of a person who is employed or, as the case may be, was at the time of commission of the alleged offence employed, in connection with the affairs of a State, of the State Government: 1 Provided that where the alleged offence was committed by a person referred to in clause (b) during the period while a Proclamation issued under clause (1) of article 356 of the Constitution was in force in a State, clause (b) will apply as if for the expression” State Government” occurring therein, the expression” Central Government” were substituted.
(2) No Court shall take cognizance of any offence alleged to have been committed by any member of the Armed Forces of the Union while acting or purporting to act in the discharge of his official duty, except with the previous sanction of the Central Government.
(3) The State Government may, by notification, direct that the provisions of sub- section (2) shall apply to such class or category of the members of the Forces charged with the maintenance of public order as may be specified therein, wherever they may be serving, and thereupon the provisions of that sub- section will apply as if for the expression” Central Government” occurring therein, the expression” State Government” were substituted.
(3A) Notwithstanding anything contained in sub- section (3), no court shall take cognizance of any offence, alleged to have been committed by any member of the Forces charged with the maintenance of public order in a State while acting or purporting to act in the discharge of his official duty during the period while a Proclamation issued under clause (1) of article 356 of the Constitution was in force therein, except with the previous sanction of the Central Government.
(3B) Notwithstanding anything to the contrary contained in this Code or any other law, it is hereby declared that any sanction accorded by the State Government or any cognizance taken by a court upon such sanction, during the period commencing on the 20th day of August, 1991 and ending with the date immediately preceding the date on which the Code of Criminal Procedure (Amendment) Act, 1991 , receives the assent of the President, with respect to an offence alleged to have been committed during the period while a Proclamation issued under clause (1) of article 356 of the Constitution was in force in the State, shall be invalid and it shall be competent for the Central Government in such matter to accord sanction and for the court to take cognizance thereon.]
(4) The Central Government or the State Government, as the case may be, may determine the person by whom, the manner in which, and the offence or offences for which, the prosecution of such Judge, Magis- trate or public servant is to be conducted, and may specify the Court before which the trial is to be held.
आपको आज दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन इसके बारे में जानकारी हो गई होगी | कैसे इस धारा को लागू किया जायेगा ? इन सब के बारे में विस्तार से हमने उल्लेख किया है, यदि फिर भी इस धारा से सम्बन्धित या अन्य धाराओं से सम्बंधित किसी भी प्रकार की कुछ भी शंका आपके मन में हो या अन्य कोई जानकारी प्राप्त करना चाहते है, तो आप कमेंट बॉक्स के माध्यम से अपने प्रश्न और सुझाव हमें भेज सकते है |