आईपीसी धारा 502 क्या है
आज हम आपके लिए इस पेज पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 502 की जानकारी लेकर आये है | यहाँ हम आपको बताएँगे कि भारतीय दंड सहिता (IPC) की धारा 502 किस प्रकार से परिभाषित की गई है और इसका क्या अर्थ है ? भारतीय दंड संहिता यानि कि आईपीसी (IPC) की धारा 502 क्या है, इसके बारे में आप यहाँ जानेंगे |
मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ का बेचना
इस पोर्टल के माध्यम से यहाँ धारा 502 क्या बताती है ? इसके बारे में पूर्ण रूप से बात होगी | साथ ही इस पोर्टल www.nocriminals.org पर अन्य भारतीय दंड संहिता (IPC) की महत्वपूर्ण धाराओं के बारे में विस्तार से बताया गया है आप उन आर्टिकल के माध्यम से अन्य धाराओं के बारे में भी विस्तार से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं |
IPC (भारतीय दंड संहिता की धारा) की धारा 502 के अनुसार :-
मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ का बेचना
जो कोई किसी मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ को, जिसमें मानहानिकारक विषय अन्तर्विष्ट है, यह जानते हुए कि उसमें ऐसा विषय अन्तर्विष्ट है, बेचेगा या बेचने की प्रस्थापना करेगा. वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा ।
IPC Section 502 – “ Sale of printed or engraved substance containing defamatory matter ”–
“Whoever sells or offers for sale any printed or engraved substance containing defamatory matter, knowing that it contains such matter, shall be punished with simple imprisonment for a term which may extend to two years, or with fine, or with both.”
लागू अपराध
1. मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण सामग्री का बेचना, यह जानते हुए कि उसमें लोक अभियोजक द्वारा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल या संघ राज्य क्षेत्र के प्रशासक या मंत्री के खिलाफ उनके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन में उनके आचरण के संबंध में की गई शिकायत अनुसार स्थापित मानहानि का विषय अन्तर्विष्ट है ।
सजा – 2 वर्ष सादा कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों।
यह एक जमानती, गैर-संज्ञेय अपराध है और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है।
2. किसी अन्य मामले में मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण सामग्री का बेचना।
सजा – 2 वर्ष सादा कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों।
यह एक जमानती, गैर-संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के न्यायधीश द्वारा विचारणीय है।
यदि मानहानि का अपराध निजी व्यक्ति के विरुद्ध है तो अपमानित व्यक्ति द्वारा समझौता करने योग्य है।
आईपीसी की धारा 502 में सजा (Punishment) क्या होगी
यहाँ भारतीय दंड संहिता में धारा 502 किये गए अपराध के लिए सजा को निर्धारित किया गया हैं | जो इस प्रकार है – मानहानिकारक जानी हुई बात को मुद्रित या उत्कीर्ण करना उसको सजा – 2 वर्ष सादा कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों दण्ड से दण्डित किया जा सकता है |
आईपीसी (IPC) की धारा 502 में जमानत (BAIL) का प्रावधान
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 502 में जिस अपराध की सजा के बारे में बताया गया है उस अपराध को एक जमानती और गैर -संज्ञेय अपराध बताया गया है | यहाँ आपको मालूम होना चाहिए कि जमानतीय अपराध होने पर इसमें जमानत मिल जाती है क्योंकी CrPC में यह जमानतीय अपराध बताया गया है ।
मित्रों उपरोक्त वर्णन से आपको आज भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 502 के बारे में जानकारी हो गई होगी | कैसे इस धारा को लागू किया जायेगा ? इन सब के बारे में विस्तार से हमने उल्लेख किया है, यदि फिर भी इस धारा से सम्बन्धित या अन्य धाराओं से सम्बंधित किसी भी प्रकार की कुछ भी शंका आपके मन में हो या अन्य कोई जानकारी प्राप्त करना चाहते है, तो आप हमें कमेंट बॉक्स के माध्यम से अपने प्रश्न और सुझाव हमें भेज सकते है | इसको अपने मित्रो के साथ शेयर जरूर करें |
अपराध | सजा | संज्ञेय | जमानत | विचारणीय |
मानहानि के मामले वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ की बिक्री, यह जानते हुए कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या केंद्र शासित प्रदेश के राज्यपाल या किसी मंत्री के खिलाफ इस तरह के मामले को नियंत्रित करने के लिए निर्वहन में उनके आचरण के संबंध में अपने सार्वजनिक कार्यों की जब एक सरकारी वकील द्वारा की गई शिकायत पर स्थापित | 2 साल या जुर्माना या दोनों के लिए सरल कारावास | गैर -संज्ञेय | जमानतीय | प्रथम श्रेणी के न्यायधीश द्वारा विचारणीय (ट्रायल किया जा सकता) |
अपमानजनक मामले वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ की बिक्री, यह किसी अन्य मामले में इस तरह के मामले को नियंत्रित करने के लिए जानते हुए भी | 2 साल या जुर्माना या दोनों के लिए सरल कारावास | गैर -संज्ञेय | जमानतीय | सेशन न्ययालय द्वारा विचारणीय (ट्रायल किया जा सकता) |
भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 502 एफ आई आर (FIR) के माध्यम से या परिवाद (Complainant) के माध्यम से लागू किया जायेगा,?,,,, कृपया बतायें
परिवाद (Complainant) के माध्यम से लागू होने वाली भारतीय दण्ड संहिता की समस्त धाराओं को भी बतायें,,,, यह भी बतायें कि परिवाद दर्ज के मामले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) और 200 का उपयोग किये जाने हेतु प्रावधान,,,,,
मानहानि अनिवार्य रूप से एक दीवानी कार्यवाही है न कि आपराधिक प्रक्रिया क्योंकि इससे एक व्यक्ति विशेष की प्रतिष्ठा की अपहानि होती है |
पिछले कुछ समय में आपराधिक मानहानि खबरों में है क्योंकि इस संकल्पना के बारे में कई प्रश्न उठाए गए हैं कि जिसमे सर्वप्रथम प्रश्न यह है कि क्या इसे आपराधिक (criminalised) बनाया जाना चाहिए या फिर दीवानी अपराध (civil offence) बनाया जाना चाहिए। इस बहस के जवाब में यह तर्क दिया जाता है कि आपराधिक मानहानि का भारतीय संविंधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदान किए गए भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इसलिए इसे दीवानी अपराध बनाने के लिए मांगें उठाई गई हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले “सुब्रह्मण्यम स्वामी बनाम केंद्र सरकार” में डिवीजन खंडपीठ में मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति पी. सी. पंत ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार में ख्याति का अधिकार (Right to reputation) शामिल है। बेंच ने सुब्रमण्यम स्वामी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल द्वारा दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया है जो भारत में आपराधिक मानहानि से संबंधित कानून को चुनौती दे रहे थे और इसके साथ साथआपराधिक मानहानि को भारतीय दंड संहिता की धारा 499 से 502 के अंतर्गत संवेधानिक तौर से वैध घोषित किया है |
मानहानि विधि का वर्तमान परिदृश्य
भारत में मानहानि दोनों, दीवानी (civil) और फौजदारी (criminal) अपराध है। दीवानी कानून के तहत, अपमानित व्यक्ति अपने अपमान को साबित करने के लिए उच्च न्यायालय या निचली अदालत में जा सकता है और आरोपी से आर्थिक मुआवजे की मांग कर सकता है।
सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अनुसार, कोई भी सशक्त मजिस्ट्रेट, धारा 190 सीआरपीसी के अंतर्गत, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को किसी भी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।
दूसरे शब्दों में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3), किसी भी संज्ञेय मामले की जांच करने के लिए एक मजिस्ट्रेट को पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को निर्देशित करने का अधिकार देती है, जिस पर ऐसे मजिस्ट्रेट का अधिकार क्षेत्र है।
हाँ, यह अवश्य है कि जब एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश देता है, तो वह केवल ऐसा अन्वेषण करने के लिए एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को ही निर्देशित कर सकता है, न कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को।
हालांकि, यहाँ यह बात साफ़ तौर पर समझ ली जानी चाहिए कि ऐसा वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, सीआरपीसी की धारा 36 के आधार पर अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है और स्वयं भी ऐसे किसी मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिस मामले का अन्वेषण करने को उस अधिकारी के अधीनस्थ कार्यरत किसी अधिकारी को निर्देशित किया गया है।
संज्ञेय अपराध के लिए
अगर किसी संज्ञेय मामले में पुलिस सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करती तो शिकायती सीआरपीसी की धारा-156 (3) के तहत अदालत में अर्जी दाखिल करता है और अदालत पेश किए गए सबूतों के आधार पर फैसला लेती है। कानूनी जानकार बताते हैं कि ऐसे मामले में पुलिस के सामने दी गई शिकायत की कॉपी याचिका के साथ लगाई जाती है और अदालत के सामने तमाम सबूत पेश किए जाते हैं। इस मामले में पेश किए गए सबूतों और बयान से जब अदालत संतुष्ट हो जाए तो वह पुलिस को निर्देश देती है कि इस मामले में केस दर्ज कर छानबीन करे।
असंज्ञेय अपराध के लिए
मामला असंज्ञेय अपराध का हो तो अदालत में सीआरपीसी की धारा-200 के तहत कंप्लेंट केस दाखिल किया जाता है। कानूनी जानकार डी. बी. गोस्वामी के मुताबिक कानूनी प्रावधानों के तहत शिकायती को अदालत के सामने तमाम सबूत पेश करने होते हैं। उन दस्तावेजों को देखने के साथ-साथ अदालत में प्रीसमनिंग एविडेंस होता है। यानी प्रतिवादी को समन जारी करने से पहले का एविडेंस रेकॉर्ड किया जाता है।